ना थारु , एक परिचय

राना थारु जनजाति अथवा / आदिवासी, उत्तर भारत के उत्तरी राज्य  उत्तराखंण्ड, कुमाऊं मंन्डल के तराई  छे्त्र की मूल जनजाति के रूप में जानी जाती है। तराई के जिला (नैनीताल) अब ऊधम सिहं नगर, खटीमा और सितारगंज तहसील की मूल आदिवासी है, जो आदिकाल से  मैदानी भाग के घने जंगलों को साफ कर, खेती योग्य उपजाऊ भूमि बनाकर, सदियों से रहते चले आ रहे हैं। खेती करना एवं जानवर पालना इनका मुख्य पेशा है।

थारू लोग समूह में रहते हैं। पचास से सौ परिवार का एक गांव होता है, इनके  घर गाँव में एक दूसरे के किनारे सटे होते हैं। यह जाति, उत्तराखंण्ड के जिला ऊधमसिंह नगर और उत्तरप्रदेश के जिला लखीमपुर खीरी, गोन्डा, तथा बिहार के चम्पारण जिला तथा पडोसी देश नेपाल के जिला कंचनपुर और कैलाली में पाई जाती है अधिकांश जनजातियां वनों में बास करती हैं, बढती जन संख्या पेंडों का कटान और आधुनिक करण नें थारू जाति को बहुत प्रभावित किया है।

 सन, 1951 में 214  जनजातियों को अनुसुचित जनजाति का दर्जा दिया गया। इसके बाद 1967 में ( The constitution order 1967-78 ) के तहत उत्तरप्रदेश के भोटिया,बोक्सा, जोनसारी, राजी के साथ ही थारू जाति को भी जनजाति का दर्जा दे दिया गया।

खटीमा , राना थारू महिला                  खटीमा के राना थारु घर

2, राना थारुऔं की उपजातियां

थारुऔं में कई उपजातियां हैं । जैसे-

1, राना

2,धंगरा

3, गढौरा

4, जुगिया

5,सौंसा

6, खुनका

7, बडायक ,

8, सुना , आदि।

इन सारी उपजातियों में “ राना “  लोगों की संख्या सर्वाधिक है। जो उत्तरखंण्ड में जिला ऊधम सिंह नगर के सितारगंज और खटीमा तहसील तथा उत्तरप्रदेश के, विश्व विख्यात दुधवा नेशनल पार्क के अन्त्रगत नेपाल सिमाना में लगभग चालीस गाँव राना थारुऒं के पाये जाते हैं।

इसके अलावा नेपाल के दोनों जिला कैलाली और कंचनपुर में  राना थारुऔं के 195 गाँव हैं।

इन सभी उपजातियों में कुछ भिन्नताएं हैं। भाषा और रहन सहन के आधार पर यह पता चलता है कि यह राना समुदाय से भिन्न हैं या नहीं। इस फर्क को केवल थारु लोग ही समझ सकते हैं। इन लोगों की शादी विवाह भी अधिकांशत: अपने ही समुदाय में होती हैं, लेकिन अब धीरे धीरे अन्य  उपजातियों में एक दूसरे के साथ शादियां होने लगी हैं ।

1, “ थारु “ नाम कैसे पडा ?

हमने अपने पूर्वजों से यह सुना था कि, “ तराई “ में वास करने के कारण थारु जनजाति को  “ तारू “शब्द से सम्बोधित किया जाता था , और बाद में “ थारू “  कहा गया। अगर इस शब्द “ तारू “  को अंग्रेजी में लिखा जाये तो, Taru ,टारू शब्द आता है। इस शब्द टारु को अंग्रेज लोग “ थारू“ Tharu शब्द उच्चारण करते थे। तब से इन लोगों को थारू कहा जाने लगा। और यही वास्तविकता भी है।

 बहुत से लेखक लिखते हैं कि,  थारू लोग राजस्थान के “ थार“  नामक स्थान से आकर यहाँ उत्तराखँण्ड की तराई में रहने लगे । इसीलिये इन्हें थारू कहा गया। इस सिलसिले में मैं ( लेखक हरी सिंह ) राजस्ठान के उदय पुर तक भ्रमण किया, मुझे एक भी सबूत नहीं मिला कि, हम थारू लोग महाराजा राणा प्रताप जी के वंशज हैं। उदयपुर सेन्ट्रल लाईब्रेरी में जाकर महाराणा प्रताप जी के इतिहास को भी पढा, लेकिन कहीं पर भी यह नहीं मिला कि, कुछ लोग अकबर और महाराणा प्रताप के लोग अपनी जान बचाने के लिऐ उत्तर की ओर आ गये । और हिमालय की तराई में रहने लगे। ये सब मन गढंन्त बातें हैं।

हाँ यह बात सत्य है कि सोलहवीं शदी में मुगल सैनिकों से बचने के लिऐ राणा लोगों ने घास पात की रोटियाँ खायीं थीं, हम थारू लोगों ने नहीं, वे राणा लोगों ने चित्तौड के जंगलों की पहाडियों में खाई थीं, जिनके सबूत  चित्तौड की पहाडियों  में आज भी मौजूद हैं।

 चित्तौडगढ से थार की दूरी लगभग 291 किलो मीटर है। थार वह मरूभूमिं है जहाँ पर रेत के सिवाय कुछ नहीं है। जहाँ लोग बस नहीं सकते थे। जहाँ पानी और फसल नहीं होती थी।

 और वास्तविकता यह भी है कि, थारु लोग राजस्थान की भाषा का एक भी शब्द अपनी भाषा के प्रयोग में नहीं लाते हैं। थारू लोगों की  भाषा हिन्दी के बहुत करीब होती है। इससे यह बात जाहिर होती है कि, सम्भवत: थारु जनजाति, राणा वंशज नहीं हैं।

कुछ भ्रांतियाँ :-

सन, 1923 में नेपाल, भारत से अलग हुआ। उस दौरान  जो राना थारू गाँव नेपाल के अन्त्रगत  आये वह नेपाल के हो गये, और जो भारत के अन्त्रगत आये वह भारत के होकर रह गये।

 कई एक लेखक अनुमान लगाते हैं कि, सोलहवीं सदी में जब मुगल सम्राट अकबर और महाराजा राणा उदय सिंह का युद्द हुआ था, तब कुछ राणा लोग हिमालय की तराई की ओर आ गये थे , जो नैनीताल जिला में तराई के घने जंगल,  सितारगंज तहसील में बारह परिवार आकर बस गये थे । जो आज भी “ बारह राणा “ के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में यह स्थान ( आर ,एस, एस, ) के अधीन है। यह दुर्भाग्य है कि 50 प्रतिशत से भी ज्यादा थारू लोगों को यह भी मालुम नहीं है कि “ बारह राना “ स्थान कहाँ पर है।

1984 से मैं एक बात सुन रहा था कि, थारु मार्द चमार जाति के थे। और  जिनके साथ  राणा महिलाऔं ने यहाँ तराई में आकर अपना मर्द चुन लिया। विवाह कर लिया। यह भी सुनता था कि, मर्द नीची जाति के होने के कारण, उनको  रसोई घर से महिलायें प्रवेश नहीं करने देती थीं। मर्दों को चौका से बाहर बैठाकर अपने पाँव से थाली धकेलकर खाना  खिलाती थीं, जो प्रथा आज भी बदस्तूर जारी है।

यह बात बेबुनियादी और बकवास है। क्यूंकि ऐसा ना मैने अपनी आँखों से देखा और ना ही कभी अपने पूर्वजों से सुना है। कौन मर्द है जो अपनी औंरतों को गैर मर्द को सौंप देता है? और कौन बेवफा औंरत है जो अपने शौहर को रण भूँमि में लडता छोडकर चली जाती है? यह बात डाक्टर की उपाधि लेने की एक साजिश है। इस बात को मैने बहुत से लोगों के मुख से सुना था। परंन्तु महाराणा प्रताप के इतिहास में थारू और उनका जिक्र कहीं नहीं पाया जाता है। यह एक मिथ्या है। कोरी कल्पना है। इन गलत बेबुनियाद बातों की मै घोर निन्दा करता हूँ।

एक बात यह जरूर थी कि, मर्द खेत खलिहानों से काम कर  थके हारे मिट्टी से सने भूंखे प्यासे, खाना खाने के बाद अपनी थकान मिटाने के लिऐ हुक्का अथवा चिलम पीते थे।

उसी चिलम को गैर थारू लोग भी, राह चलते राहगीर और मुस्लिम ब्यापारी भी पी लेते थे। इस कारण थारु समाज मॆं चिलम को अछूत माना जाता है। क्यूंकि उस चिलम को कई हाथों और मुख से होकर गुजरना होता है। चिलम को ( चमरिया ) चमारिन  कहा जाता है। अत: चिलम को रसोई घर के चौका में ले जाना सख्त चर्जित था।

 अब वर्तमान में हुक्का का प्रचलन खत्म हो चुका है।  और आज के युवा इस बात को जानते भी नहीं हैं। हुक्के की जगह अब बीडी और गुटका खैनी ने ले लिया है।

हुक्का एवं ऊपर चिलम

चिलम को “ चमारनी“ माना जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि, थारू मर्द “ चमार “ थे। ( मैं हाथ जोडकर यहाँ माफी चाहुंगा कि मैने शब्द “ चमार और चमारनी“ का प्रयोग किया है। यह किसी की भावना को ठेस पहुंचाने के लिये नहीं लिखा है )

इतिहासकार कहते हैं, सोलहवीं शदी में जब राणा उदय सिंह और अकबर का युद्द हुआ था तब राणाऔं की महिलायें और बूढे लोग अपनी जान बचाने के लिऐ उत्तर की ओर जंगल में भागे, और चलते चलते यह लोग हिमालय की तराई में आ पहुंचे, जहाँ आकर रहने लगे। इन महिलाऔं ने अपने नौकरों के साथ शादी रचा लिया, और यहीं के होकर रह गये। और धीरे धीरे हिमालय की तराई में फैलते चले गये। यह बात कोरी मिथ्या और बेबुनियाद है।

क्यूंकि राना थारू जनजाति का एक भी ऐसा चरित्र नहीं जो राजस्थान के राणाऔं से मेल खाये। और यदि ऐसा होता तो कहीं ना कहीं राना थारुऔं का वर्णन महाराणा प्रताप के इतिहास में जरुर होता। यह भी एक कोरी भ्रांति है।

अब मैं प्रमाणित करता हूँ कि, ना तो थारु राजस्थानी, भाषा बोलते हैं, ना ही थारुऔं की लम्बाई चौडाई राजस्थान के लोगों से मेल खाती है। राजस्थान के लोग रोटी के शौकीन होते हैं जबकी थारू लोग चावल मछली के। राजस्थानी लोगों की बडी बडी मूछें होती हैं जबकी थारू लोगों में अधिकाँशत: लोगों की मूछें ही नहीं होती हैं। ना ही वहाँ के लोगों के साथ कोई आज तक रिस्तेदारी है, ऩा ही कोई संस्कृति मिलती है। ना ही उनकी भषा बोली मेल खाती है, तो क्यूँकर माना जाये कि राना थारू महाराजा राणा प्रताप के वँशज हैं ?

अपनी भूंमि के लिये मर मिट जाने बाले राणा, क्या भूँमि और राज महल छोडकर भागते हैं ? अपनी स्त्री के लिये मर मिटने बाला राणा क्या अपनी स्त्रियों को नौंकरों को सौप देता है ? यह सब एक भ्रम है। और राना थारुऔं को भ्रमित किय गया है।

अत: राना थारु लोग इसी तराई के मूलनिवासी,आदिवासी यनि की शुरू के निवासी हैं।

2, थारुऔं में अन्य जाति समूह

 “ चौधरी थारु “ जो नेपाल के तराई भाग में पूरब से लेकर पश्चिम तक पाऐ जाते हैं। कुछ लोग भारत में भी सीमा के पास गाँव में रहते हैं। और दोनों मुल्क के आपस में शादी ब्याह करञे हैं। इनमें भी इनके निवास के आधार पर  इनको नाम दे दिया जाता है, जैसे

मोरंग जिला के थारुऔं को मोरंगिया कहा गया।

देऊखरी थारु को देऊखरिया कहा गया।

दाँग के थारु को दँगौरा कहा गया आदि।

चौधरी थारुऔं में उपजातियाँ

1,सुनाह

2, कठरिया

3,राजवंशी

4,खुना ,

5, दहित

6, करिया

7, कुशमी

8, भगौडी

9, बखरिया

10, दंगौरा ( जो दाँग से आये )

11, महतो

12, देऊखरिया ( जो देऊखरी से आये ) आदि।  

चौधरी थारू महिलाऐं                              चौधरी थारु घर

देखा यह गया है कि,नेपाल में राना थारुऔं की अपेछा चौधरी थारु लोग ज्यादा पढाई लिखाई में आगे हैं। जो देश में सरकारी और सामाजिक सेवा में रानाऔं से कहीं आगे हैं।

और यह भी हकीकत है कि, भारत के थारुऔं से नेपाल के थारु कहीं आगे हैं। नेपाल के थारुऔं का अपना टीवी प्रोग्राम है। एफ एम चैनल के माध्यम से राना भाषा में समाचार प्रसारित होते हैं। सबसे पहिले राना थारु गीत, चौधरी गीत नेपाल से शुरू हुऐ,सबसे पहिली राना भाषा की फिल्म नेपाल के राना लोगों ने बनाई।

इन सारी बातों से यह पता चलता है कि, नेपाल के थारु भारतीय थारुऔं से कहीं आगे हैं।

ऐसा नहीं कि, नेपाली थारू आर्थिक और सामाजिक रूप से बहुत सम्पन्न हैं। एक समय ऐसा भी था कि, लाखों थारु जिमींदारों की गुलामी में जी रहे थे। और बहुत से ऐसे भी थे जिनकी न जाने कितनी पीढियाँ गुलामी का जीवन काट  चुकी थीं।  लेकिन जिमिंदारों का कर्ज कभी नहीं उतरता था।  यह गुलाम किसी और के यहाँ पर  काम भी नहीं कर सकता था। फटे पुराने कपडों में रात दिन खेतों में पूरा परिवार जुटा रहता, दूध पीने बाले मासूम छोटे बच्चे फटे चीथडे कपडे में किसी पेंड की छाँव में बने झुले पर लटके होते। इतना काम करने के बाद भी भर पेट खाना भी नहीं खा सकते थे। जिमीदारों का शोषण थारु समाज पर पूरी तौर से हावी था, कोई सुनने बाला नहीं जो थारू समाज का उत्थान कर सके। जिमींदारों की मार गाली खाते खाते थारु जाति आजादी पाने की आश छोड चुके थे।

सन, 2000 में बहुत से थारु लोग नेपाल कैम्यूनिस्ट पार्टी में  आकर मिल गये।आस्था रखने लगे थे कि अब यही पार्टी है जो उनका उद्दार कर सकती है। तमाम थारुऔं ने हथियार उठा लिये और माऔवाद की राह पकड लिया।

कहते हैं कि जब किसी का कोई नहीं होता है, तो उसका खुदा होता है यारो। यहाँ एक बात अच्छी है कि सरकारी स्कूलों में पढाई अच्छी होती है। जिसका फायदा थारू लोगों नॆ उठाया।

नेपाल में कुछ ऐसी संस्थायें भी थीं जॊ समाजिक कार्य कर थारू जाति को आर्थिक और समाजिक रूप से उठाने का काम कर रहीं थीं। जिनमें कुछ इसाई संस्थायें थीं जो प्रौढ शि्च्छा कार्यक्रम चला कर  थारु जाति के उत्थान के लिये काम किया। इन संस्थाऔं ने गाँव गाँव में पीने के लिये नल लगवाया। और धीरे धीरे गुलामों का कर्ज चुका कर उन्हें अजाद कराने का काम कराने लगे।

1998 की बात है। उन दौरान मैं अत्तरिया नामक स्थान में रहता था।  मैं ( slave redemption program)  गुलामों को छुडाने के काम में लगा हुआ था, मेरे एक पहिचान में चौधरी थारू आदमी आया। उसका पूरा परिवार मेरे पास के जिमींदार के खेत किनारे झोपडी में रह रहा था। बात करते समय मुझे पता चला कि, वह उसका घर नहीं है, किसी पंडित का वह ( कमैया ) गुलाम है। उसने बताया हम दो पीढी से यहाँ कमैया ( बन्धुआ ) हैं, और मालिक ने हमारी दो कट्ठा जमीन भी ले रखा है। तीस चालीस हजार रुपये भी हमारे ऊपर निकालता है।

तब मैने सोंचा क्यूं ना जिमींदार के चंगुल से इसको छुडाया जाये।

एक दिन मैं उसके पास पहुंचा वह खेत में काम कर रहा था, मैने उससे जिमीदार से छुटकारे की बात किया, यह सुन उसके जीवन की एक किरण की उम्मींद जागी। उसे भी लगा कि, अब मै और मेरा परिवार अजाद हो जयेगा । मैने उसको बताया कि कल हम  आपके पास आयेंगे और आपके मालिक से बात कर, आपका कर्ज आपके मलिक को चुकयेगे । शायद वह रात में ताने बाने बुन रहा हो  कहा,  उसने बताया

थारूओं का विस्वास व धर्म

थारु लोग प्रक्रति ( Animism ) पूजक होते हैं। यह अनादि काल से पेंड वनस्पति पौधे, नदी नालों, और धरती ( भूंमि ) की उपासना करते हैं। 19 वीं शदी तक थारू गाँव में कोई मेडिकल सुविधा नहीं थी। तब तक थारू लोग केवल झाड फूंक पर ही विस्वास करते थे। हर गाँव में एक झाड फूंक बले आदमी की नियुक्ति होती है जिसे “ भरारे “  गौंटरेया “आथवा कहीं कहीं पर “भर्रा “ कहते हैं। भरारे का काम बस इतना होता है कि वह अपनी तंन्र मंत्र विद्या से गाँव में आने बाली बिमारी, भूत प्रेत की आत्मा, मच्छरों के प्रकोप को रोकेगा। यदि गाँव में रात के समय कुत्ते अजीब आवाज निकालकर बोलते हैं तो इसे गाँव घर के लिये अशुभ माना जाता है। और यदि गाँव में मच्छर का प्रकोप बढा तो इसका दोष उस भरारे के ऊपर लगाया जाता है जिसने गाँव की गमाट ( झाड फूंक कर )  देखने की जिम्मेवरी ले रखी है। हर गाँव में एक भरारे और एक चौकीदार अथवा कुटवार की नियुक्ति होती है। जिसे हर परिवार से निर्धारित छमाहीं अनाज दिया जाता है।

आज भी इक्कीसवीं शदी में  बहुत से पढे लिखे थारु लोग डाक्टर से भी अधिक अपने गाँव के झाड फूंक करने बाले ओझा के ऊपर ज्यादा विस्वास करते हैं। ओझा के बहुत मजे होते हैं, क्यूंकि प्रत्येक दिन लोगों की लाईन लगी होती है उसे अपने घर ले जाने के लिये। वह भरारे नहीं जो मुर्गा और शराब ना खाता पीता हो। उसे ऊंचा दर्जा दिया जाता है, जिस घर के लोग ज्यादा परेशांन होते हैं ,तब ओझा काँशे की थाली में गेहूँ के दाने को बार बार बिखेर कर अपनी तंन्त्र विद्या द्वारा बातयेगा कि, तुम्हारे घर में बहुत गडबडी है, मैने सही कर दिया है, इसके लिये मैने तुम्हारे ग्रह देवता को एक मुर्गा,तीन शराब की बोतल देने की वाचा बांध दिया है।

तब दुखिया परिवार को इसका इन्तजाम फौरन करना होता है। यदि आर्थिक परेशानी हो तो दो चार दिन की मोहलत दुखिया परिवार मांग लेता है। कहीं परिवार में कोई विघन ना हो जाये डर के मारॆ दुखिया परिवार को शीघ्र से शीघ्र पूजा देनी होती है।

बहुत से परिवार में मुर्गा,अंन्डा,बकरा, सुअर अपने ग्रह देवता को ओझा के कहने पर चढाया जाता है, जिसमें शराब अनिवार्य होती है। जिसे लेकर ओझा थाली में लोंग आदि भेंट और गोबर के उपले ( कन्डा ) में आग तथा मुर्गा, अन्डा की बली देकर ग्रह देवताऔं को चढाया जाता है।

1992 की घटना है, उन दौरान मैं उत्तरप्रदेश के जिला लखीमपुर खीरी तहसील निघासन, चन्दन चौकी, नझौटा गाँव में था। गाँव के भज्जी सिंह राना का बेटा धरती के छेदों में पानी डालकर एक काला प्रकार का भँवरा निकाल रहा था जो रात में गँन्दगी खाने निकलता है। मैने उससे पूछा क्या करोगे ? उसने बताया पूजा करेंगे। बात समझ में नहीं आयी, जब उसके पिता भज्जी से मैने पूंछा तो उन्होंने हँसते हुऐ मुझे बताया कि, हमारे  घर में हर साल सात सुअर पूजा के रूप में देवताऔं को चढाये जाते हैं। अब सुअर बहुत महगे हो चुके हैं, इसी लिये इन भँवरों को हम सतजुगी सुअर मानते हैं।

इन्हीं दौरान यहीं एक गाँव में बहुत अजीबो गरीब घटना घटी। गौरीफन्टा के पास नेपाल बोर्डर से सटा एक गाँव कजरेया है। जैसे ही मैने सुना कि कजरेया गाँव में एक महिला को इन्सानों का मलमूत्र खिलाया गया। क्यूंकि उस महिला को गाँव के लोगों ने डायन घोषित कर रखा था।

इस घटना के चार दिन के बाद मैं अपनी सायकिल से कजरेया गाँव पहुंचा। जिनसे मैं उक्त महिला के बारे में पूंछता, तो लोग बतानॆ से कतराने लगते थे, अंन्तत: उस महिला का घर मुझे मिल गया।

वह महिला बडी मुस्किल से अपने छोटे से घास बाले घर के अन्दर से निकली, जिसमें दरवाजे तक नहीं थे। सामने आकर बैठकर रोने लगी। उसके बाल बहुत बेतरतीव तरीके से कटे हुये थे। वय दर्द से तडफ रही थी। उसके चेहरे में खौफ नजर आ रहा था। जब मैने पुरे मामले को समझना चाहा तब उसने रोते हुऐ बताया।

“ मैं गाँव की बहुत गरीब महिला हूँ। मेरा नाम नथिया बती है, मेरे दो बच्चे हैं। मेरे पती का नाम लछमिन सिंह है। मेरे पति गाँव में ही किसी के घर नौकरी करते हैं।

 एक दिन मैं अपने पडोस के घर एक बच्चे का हाल पूंछने चली गयी जो बिमार था। मेरे आने के बाद रात में वह लडका मर गया जिसको मै देखने गयी थी। उस लडके को दफना दिया गया।

लगभग एक हप्ते के बाद उस परिवार के लोगों ने बहुत सारे भरारे जादू टोना बालों को बुलाया। एक मशहूर डिल्ली भरारॆ भी वहाँ था, जो नेपाल से आया था। आगे नथिया ने बताया , “ रात का समय था, कुछ लोग मेरे घर में आये,और मुझे घर से ही मारते पीटतॆ और घसीटते हुऐ ले गये , मेरे कपडे फाड दिऐ। भरारे लोग मुझे बुरी तरह से पीटने लगे, मैं बेबस थी। जिसका मन आया मुझे मार मार कर अधमरा कर दिया। बहुत से लोगों ने एक मिट्टी के घडे में अपना मल और मूत्र भर कर लेकर आये, और मुझे खाने के लिये मजबूर कर दिया, यदि नहीं खाती हूँ तो मेरी जान जाती है। मैने अपने बच्चों के खातिर जिन्दा रहना मुनासिब समझा। मेरे बाल काट दिये गये। मेरे चेहरे पर कालिख जला हुआ मोबिलाँयाल पोत दिया गया। और मार मार कर मुझसे यह कबूल कराया गया कि, उस बच्चे की जान मैने ही लिया है। और साथ में एक स्टाम्प पेपर भी बनवाया गया कि, मैं किसी के विरुद्द थाने में नहीं जाऊंगी।

“ भरारे जिसे हर फसल में गाँव के हर परिवार से कम से कम दस किलो अनाज उसको दिया जाता है।  थारू इलाके के तराई भाबर में रह पाना इतना आसन नहीं था। क्यूंकि हैजा, मलेरिया , चेचक जैसी खतरनाक महामारियौं का प्रकोप इतना बुरा था कि, जिस गाँव में फैल जाये वह पूरा गाँव ही समाप्त हो जाता था। जो  गाँव के लोग बच जाते वे अन्यत्र जाकर बस जाते। और बसने के आधार पर गाँव के नाम भी पडते चले गये।

राणा थारू समाज में शादी ब्यवाह

थारु समाज में शादियाँ कभी पंन्डित नहीं करता है। आजकल कुछ लोग फंन्डितों से शादी कराने लगे हैं। क्युंकि थारु प्रक्रति पूजक हैं इसलिऐ यह जाति प्रक्रति और भूंमिसेन अर्थात धरती को गवाह बनाकर शादी की रश्में पूरी करते हैं।

एक समय था जब थारू समाज में पंन्द्रह दिन शादी में लगते थे। एक महीना पहिले घर की वह सभी बहिनें आ जातीं ताकि शादी की तैयारी में कपडे सिलाई ,चूल्हा ,लकडी घर में लिपाई पुताई कर काम में हाथ बँटा सकें।

यदि लडकी की शादी है तो निमन्त्नण में बतासे और यदि लडका है तो सुपारी हर  रिस्तेदार के घरों में पहुंचा दिया जाता है, अधिकाँशत: यह निमन्त्रण गाँव का कुटवार ( चौकीदार ) ही ले जाता है, यदि कुटवार ब्यसत है तो गाँव के किसी भी लडके को निमन्त्रण पहुंचाने का काम सौंप दिया जाता है।और मौखिक शादी का दिन उनको बताना पडता है। बदले में जिनको निमन्त्नण दिया वह परिवार निमन्त्नण पहुंचाने बाले को कम से कम दो माना चावल ( सीधो कहते हैं ) देता है। लेकिन अब चावल देने की प्रथा खत्म हो चुकी है। और सुपारी बतासे का स्थान  शादी कार्ड ने ले लिया है। पहिले डोली में शादियाँ होती थीं, अब डोली का स्थान कारों ने ले लिया है।

शादी अक्सर माघ पूस के महीने में करते हैं। शादी से एक दिन पहिले भुइयाँ पूजी जाती है, यह स्थान हमेंशा गाँव के दक्खिन छोर में होता है, आजकल प्राय: पीपल का पेंड भूंमिसेन देवता के स्थान पर लगाने लगे हैं। शादी के परिवार की ओर से बैंन्ड बाजे के साथ भुइंयाँ को कन्डे की आग घी कुछ पूडी पकवान चढाया जाता है, और पेंड पर चावल हल्दी से रंगा हुआ कच्चा धागा बांधा जाता है। उसके बाद गाँव का मुखिया जिसे पधान कहते हैं, के घर जाकर कुआँ अथवा नल में वही चीजें जो भुईयाँ में चढाया था , चढाते हैं।,  इसी रीति से फिर बच्चों को लेकर आम की बगिया में,  वही आदमी जिसको जिम्मेवरी दी जाती है, जिसे कुटवार कहते हैं , वह जाता है और आम के पेंड पर कच्चा धागा लपेटकर कन्डे की आग घी पकवान गुड चढाता है, और बच्चों को गुड खाने को देता है। बच्चे कुछ आम की सूखी  पतली लकडी बटोरते हैं, जिनकी यह मान्यता है कि, आम की लकडी शुद्द होती है। ब्याहने जाते वक्त कार मे सहबिल्ला यनि छोटा सा बच्चा सजा धजा दूल्हे के साथ जरूर होता है। शादी में सबसे अहम भूमिका दूल्हा के बहनोई की होती है।

जब दूल्हा अपनी दुल्हन को लेकर वापिस अपने घर को लौटता है तो  दूल्हे की ओर से गाँव का भरारे और एक दो लोग गाँव से बाहर रास्ते में बारात आने से पहिले बैठ जाते है, वे अपने साथ ( कुम्हडा ) पेंठा गोबर के कन्डे में आग शराब तथा पानी आटा गून्ध कर चार टिक्की बना लेते हैं। एक समय था पेंठा की जगह पर बकरा ले जाया जाता था, जैसे ही बारात इन लोगों के पास पहुंचती पेंठा काट कर शराब को कन्डे की आग में  भरारे ग्रह देवताऔं को चढाकर मन्नत पूरी करता है। इनका विस्वास है कि पेंठा और बकरा एक समान है। बहुत से थारू लोग जो शाकाहारी हैं वे पेंठा कभी नहीं खाते  हैं।

थारू जाति में शराब, कन्डे की आग, अन्डे, मु्र्गा, बकरा, सुअर प्रमुख हैं जिनको केवल भरारे ही चढाता है।

शादी में अधिकाँशत: महिला ही खाना बनाती हैं। जिन्हें “ रुटकरनी “ कहते हैं। कम से कम दो लोगों को नियुक्त किया जाता है कि वह गाँव खाने के लिये बुलावा करे, पानी चाय आदि का प्रबन्ध करें , उनको  “ कारबारी “ अथवा  करबरेया कहा जाता है।

जो लोग दूल्हे के साथ बरात में जाते हैं, उन्हें “ बरैतिया “ कहते हैं। जब दूल्हा दुल्हिन ब्याह कर लाता है,तब दुल्हिन के साथ जो महिलायें आती हैं उनको “ धाय “ कहते हैं। फिर दुल्हिन की ओर से शाम को जो लोग जाते हैं उन्हें “ निन्हरिया अथवा किजैती “ कहते हैं।

एक समय वह भी था जब दूल्हा की डोली कम से कम पन्द्रह बीस लाहडू ( बैलगाडी ) के आगे आगे ब्याहने जाता था। और दुल्हिन की ओर से भी दूसरे दिन कम से कम पन्द्रह बीस ( निन्हरिया ) दुल्हिन और उसके साथी महिलाऔं को वापिस मायके लाने बाले लाहडू ( बैलगाडी ) आते थे। और हर लाहडू में लडकियाँ महिलायें भरी होती थीं।

शादी में महिलाएं ही खाना खिलाती हैं। खाने के लिये एक विशेष स्थान होता है, जहाँ चौका लगाकर लाईन से चटाई में बैठा कर खाना परोसा जाता है।  खाने में उडद की दाल, चावल, सब्जी और बेसन की “ सेओ और कतरा की झोरी “ कडी बहुत प्रसिद्द है।

चराँई :- यह महिलाओं का एक चाढ पर्व है, जो बैशाख महीने में मनाया जाता है। इसी माहिने में शादी के बाद दुल्हिन को ससुराल लाया जाता हैं । ( लेकिन आजकल शादी के दूसरे दिन ही दुलहन को लाने लगे हैं )। एक निशि्चित दिन को  गाँव में चराँई की मछली मारने का गाँव का पधान कुटवार के द्वारा बोला कराता है। और दूसरे दिन गाँव में जितनी नयी बहुऐं आती हैं सबको आम की बगिया में घर के लोग लाते हैं। और सारे गाँव की महिलायें वहाँ नाना प्रकार के पकवान लेकर जाती हैं, एक दूसरे से आदान प्रदान कर खातीं हैं। यदि कोई मर्द उन महिलाओं को दिख जाये तो हजारों किस्म की माँ बहिन की गाली से नवाजती हैं। इस बात का कोई बुरा भी नहीं मनता है, क्यूंकि रिवाज चलन ही ऐसा है।

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Meet Himanshu Rana, an enterprising individual whose entrepreneurial spirit knows no bounds. Hailing from the picturesque town of Khatima, nestled in the heart of the Rana Tharu tribe's territory, Himanshu has embarked on a remarkable journey of success and innovation. With Dubai as his primary base of operations, he has expanded his ventures across continents, establishing thriving businesses in London and New York. From humble beginnings in Khatima, Himanshu's determination and vision have propelled him to the forefront of the global business landscape. With a keen eye for opportunities and a penchant for strategic thinking, he has built a diverse portfolio of enterprises that span various industries. Despite his far-reaching ventures, Himanshu remains deeply rooted in his cultural heritage, drawing inspiration from the rich traditions of the Rana Tharu tribe. His upbringing instilled in him a strong work ethic and a deep sense of community, which continue to guide his endeavors to this day. In the dynamic and competitive world of entrepreneurship, Himanshu Rana stands out as a shining example of perseverance, innovation, and success. As he continues to expand his footprint across the globe, his journey serves as an inspiration to aspiring entrepreneurs everywhere.

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